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Sunday, 21 June 2009

बहला-फुसला कर वह मुझको

बहला-फुसला कर वह मुझको कुछ ऐसे भरमाता है
सात समंदर पार का सपना सपना ही रह जाता है

अंधियारी काली रातों में उल्लू जब जब गाता है
अनहोनी की आशंका से अपना जी घबराता है

सपने देखो फिर जिद करके पूरे कर डालो लेकिन
उनसे बचना जिनको केवल स्वप्न दिखाना आता है

उलझी तो है खूब पहेली मगर बाद में सुलझाना
पहले सब मिल ढूंढो यारों कौन इसे उलझाता है

रावण का भाई तो केवल छः महीने तक सोता था
मेरा भाई विश्व-विजय कर पांच बरस सो जाता है

पलक झपकने भर का अवसर मिल जाए तो काफी है
वो बाजीगर जादूगर वो क्या क्या खेल दिखाता है

क्या कमजोरी है हम सब में जाने क्या लाचारी है
करना हम क्या चाह रहे हैं लेकिन क्या हो जाता है

हर होनी अनहोनी से वह करता रहता रखवाली
ईश्वर तब भी जगता है जब "जोगेश्वर" सो जाता है

2 comments:

Udan Tashtari said...

बहुत बढ़िया.

नीरज गोस्वामी said...

सपने देखो फिर जिद करके पूरे कर डालो लेकिन
उनसे बचना जिनको केवल स्वप्न दिखाना आता है

रावण का भाई तो केवल छः महीने तक सोता था
मेरा भाई विश्व-विजय कर पांच बरस सो जाता है

क्या कमजोरी है हम सब में जाने क्या लाचारी है
करना हम क्या चाह रहे हैं लेकिन क्या हो जाता है

जोगेश्वर जी क्या लाजवाब शेर कहें हैं आपने...वाह....आपकी कलम को मेरा सलाम...पूरी ग़ज़ल ही बेहद उम्दा है...मेरी बधाई स्वीकार करें...
नीरज