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Monday 6 December, 2010

क्रिया की प्रतिक्रिया

राजस्थान प्रशासनिक सेवा के १९८९ बैच के अधिकारी हैं श्री अश्विनी शर्मा. फेसबुक पर मेरे मित्र हैं.
कल उन्हों ने मेरी वाल पर एक ग़ज़ल चिपकाई और प्रतिक्रिया माँगी.
ये रही उनकी ग़ज़ल :

दर्द जब बेजुबान होता है
जिस्म पूरा बयान होता है

आदमी किश्त किश्त जीता है
सब्र का इम्तिहान होता है

कौन सी हद औ किस के पैमाने
एक सपना जवान होता है

शख्श एक हौसले से जीता है
आँख में असमान होता है

वक़्त है आम खास क्या होगा
सिर्फ एक दास्तान होता है

जुगनुओं को करीब से देखो
इस चमक में जहान होता है 


और ये रही क्रिया की प्रतिक्रिया :

आदमी बदगुमान होता है 
हर शिखर का ढलान होता है 

दर्द जब भी जवान होता है 
सब्र का इम्तेहान होता है 

घाव दिल पर लगे बहुत गहरा 
शक्ल पर कब निशान होता है 

हो न अहसास से भरा दिल तो 
जिस्म खाली मकान होता है 

खूब हो माल ज़र जमीं दौलत 
कौन इनसे महान होता है 

ख्वाब लाखों तबाह होते हैं 
जिस्म जब भी दुकान होता है 

खुशनसीबी अगर हमारी हो 
आदमी से मिलान होता है 

ढूँढते है सभी कमी मुझ में 
कब गलत आसमान होता है 

है तभी कामयाब "जोगेश्वर"
तू अगर मेहरबान होता है 
 
आपकी प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा रहेगी.

Sunday 21 November, 2010

सुरमन

मेरे एक मित्र हैं सुरेन्द्र चतुर्वेदी. पेशे से पत्रकार. ८ मई १९९५ को उनकी शादी समारोह में मैं उपस्थित था. उनकी पत्नी मनन को देखते ही मुझे लगा कि ये लड़की कुछ अलग है. जितनी चंचल उतनी ही संजीदा. जितनी संवेदनशील उतनी ही कर्मठ. जितनी दयालु उतनी ही कठोर. जितनी सक्रिय उतनी ही सतर्क. मैंने उसे अपनी मुंहबोली बहिन बना लिया. आगे जा कर उसने अपने इन गुणों को अक्षरशः प्रमाणित किया.

सन २००२ में अचानक मुझे पता चला कि तीन बच्चों की मां बन चुकी मनन एक बच्ची (उम्र २ वर्ष) को अपने घर ले आयी है. वह बच्ची किसी भिखारिन के पास थी जो उससे भीख मंगवाती थी और जब वह अत्यधिक बीमार हो गयी तो उसे फुटपाथ पर छोड़ गयी. मनन ने उस बच्ची की सेवा की. वह ठीक हो गयी. उसका नाम रखा गौरी जो अभी आदर्श विद्या मंदिर में पढ़ रही है.
गौरी से जो सिलसिला शुरू हुआ वह आगे भी जारी रहा. गौरी जैसे ही परित्यक्त, पीड़ित, प्रताड़ित बच्चों को वह अपने घर में आश्रय देती गयी. बहुत बाधाएं आयी. अपनों का और पड़ोसियों का विरोध भी सहना पडा. पर इस कार्य में उनके पति सुरेन्द्र ने पूरा सहयोग किया. इस कार्य को विधिसम्मत तरीके से चलाने की सारी कवायद उन्हों ने ही की.
तमाम बाधाओं, अवरोधों, कठिनाइयों और मुसीबतों के बावजूद सुरेन्द्र का "सुर" और मनन का "मन" मिल कर बना "सुरमन" संस्थान उन बच्चों को अपना बनाने के भागीरथी प्रयत्न में लगा है जिनका इस संसार में कोई नहीं है. आज "सुरमन" ६६ बच्चों का आशियाना है और सुरेन्द्र-मनन स्वयं को उन ६६ बच्चों के पिता एवं माता कहते हुए अघाते नहीं हैं. मजे की बात ये कि किसी भी अनजान व्यक्ति के लिए यह जानना बहुत मुश्किल है कि उनमे से वे तीन बच्चे कौन से हैं जो मनन की कोख से पैदा हुए हैं.

गत १७ नवम्बर को मनन का जन्मदिन था. मैंने बधाई दी तो बोली मेरी गिफ्ट ? मैंने कहा क्या चाहिए ? बोली एक ग़ज़ल ऐसी जिसे पढ़ कर मैं यह अनुमान लगा सकूं कि मेरा भाई मुझे कितना समझ पाया है.
मांग साधारण नहीं थी. पर बहिन ने मांग की है तो पूरी तो करनी ही थी. जो ग़ज़ल मैंने मनन के लिए लिखी वह हू-ब-हू आप की सेवा में प्रस्तुत है.

जमीं पर राज तेरा हो हुकूमत में गगन तेरा 
चमेली से गुलाबों से सदा महके चमन तेरा 

मुसीबत से तेरा लड़ना, झगड़ना हर बुराई से 
क़यामत तक रखे कायम खुदा ये बांकपन तेरा 

जनमते ही जिसे छोड़ा, नसीबों ने जिसे मारा 
उन्हें भी छाँव ममता की मिले हर पल जतन तेरा 

न अपना है तेरा अपना, न कोई भी पराया है 
खुदी तूने मिटा डाली न तन तेरा न मन तेरा 

न फुर्सत है न आलस है न नफ़रत को जगह कोई 
लुटाने को मुहब्बत ही हुआ है आगमन तेरा 

सुरों का इन्द्र जब पहुंचा मनन के द्वार पर आकर 
सजा सुरमन बढ़ा सुरमन बना सुरमन वतन तेरा 

चिरंतन सोच सेवा की लिए चलना निरंतर तू 
करेंगे सब मदद तेरी सुनेंगे सब कथन तेरा 


तुम्हारे जन्मदिन पर आज "जोगेश्वर" दुआ मांगे 
रहेगा नाम हर पल ही बुलंदी पर "मनन" तेरा 

Saturday 6 November, 2010

अमीरी में रखा क्या है

पूरे तीन महीने बाद आज बिचारे ब्लॉग की सुध ली है. जबसे बैरन फेस बुक सौतन बन कर खड़ी हो गयी है तब से हमारा ब्लॉग बिचारा हो गया है. वैसे भी नेट पर बैठने के लिए ज्यादा समय तो मिलता नहीं. जो मिलता है वो भी सारा फेस बुक की भेंट चढ़ जाता है. निश्चित ही फेस बुक ज्यादा बड़ा प्लेटफोर्म है जहां ज्यादा लोगों से संपर्क और ज्यादा लोगों तक पहुँच बन सकती है. और राजनीति से जुड़े लोगों के लिए ज्यादा लोगों से जुड़ने का लोभ संवरण कर पाना ज़रा मुश्किल होता है. ज्यादा लोगों से जुड़ाव हमारे लिए नशे से कम नहीं होता है. इसलिए................... मुझको यारों माफ़ करना मैं नशे में हूँ !

खैर....... ! सबसे पहले तो इस ब्लॉग के सम्माननीय पाठकों और प्रशंसकों को दिवाली की हार्दिक शुभ कामनाएं ! और अब आनंद लीजिये एक ताज़ा ग़ज़ल का !

अमीरी में रखा क्या है 
ग़रीबी में बुरा क्या है 

कभी पूछो फकीरों से 
फकीरी में मज़ा क्या है 

तुझे भी एक दिन जाना 
बचा अब रास्ता क्या है 

चला चल जानिबे मंजिल 
मुसाफिर सोचता क्या है 

पता क्या है हवाओं को 
दिए का हौसला क्या है 

तुझे मिलना बहुत चाहूँ 
बता तेरा पता क्या है 

समझना है बहुत मुश्किल 
खता क्या थी सज़ा क्या है 

फिरे क्यों पूछता सब को 
मुक़द्दर में लिखा क्या है 

बताये कौन बन्दे को 
खुदाओं की रज़ा क्या है 

अहमियत खुद समझ अपनी 
बिना तेरे खुदा क्या है 

कभी तो सोच "जोगेश्वर" 
गया क्या है बचा क्या है 

Wednesday 4 August, 2010

कश्ती है समंदर में

मेरी १०० वीं पोस्ट पर एक टिप्पणी आयी थी "अच्छा भजन है". इस टिप्पणी पर मुझे ख़याल आया हिंदी के अनेक भक्तकवियों ने अपने प्रभु को रिझाने के लिए "ग़ज़ल" विधा का भरपूर उपयोग किया है. ब्रह्मानंद का यह प्रसिद्द भजन तो सब की जुबान पर होगा ही :"मुझे है काम ईश्वर से जगत रूठे तो रुठन दे".

"धरी सिर पाप की मटकी, मेरे गुरुदेव ने झटकी,
वो ब्रह्मानंद ने पटकी, अगर फूटे तो फूटन दे"
 
इस कड़ी में अनेक उदाहरण गिनाये जा सकते हैं. सूफी कलाम तो सारा का सारा ग़ज़ल-मय ही है. नवीनतम उदाहरण के रूप में आस्था और संस्कार जैसे धार्मिक टीवी चेनलों में भजन गाते हुए श्री विनोदजी अग्रवाल को अक्सर देखा-सुना जा सकता है. उनके द्वारा गाये जा रहे ज्यादातर भजन ग़ज़ल ही होते हैं. इसी कड़ी में लीजिये प्रस्तुत है एक भजन-कम-ग़ज़ल :

कश्ती है समंदर में और दूर किनारा है 
तू पार उतारेगा, तुझको ही पुकारा है 

लाखों हैं पाप मेरे, कोटि अपराध मेरे 
गलती की गठरी है, भूलों का पिटारा है 

झूठे हैं सहारे सब, मक्कार फरेबी सब,
सच्चा इक नाम तेरा, सच्चा तू सहारा है 

ये सिर उन चरणों पर, वो हाथ मेरे सिर पर,
क्या खूब इनायत है, क्या खूब नजारा है 

हर पल जो बीता है "जोगेश्वर" जीता है 
बेशक है नाम मेरा, पर काम तुम्हारा है 

बहुत दिनों बाद ब्लॉग पर आना हुआ है. आपकी टिप्पणियों से ही पता चल पायेगा कि ग़ज़ल का यह रूप पसंद आया या नहीं ?
 

Monday 14 June, 2010

त्रिवेणी संगम

जालोर में मेरे दो साहित्यिक मित्र हैं. एक अचलेश्वर "आनंद" दूसरे परमानंद भट्ट. एक "आनंद" तो दूसरा "परमानंद" ! अब समझे आप मेरे सदा आनंदित रहने का रहस्य ? हम तीनों ग़ज़लों के रसिया. ग़ज़ल कहना, पढ़ना, सुनना और सुनाना हम तीनों को बहुत अच्छा लगता है. और एक रहस्य की बात बताऊँ ? ग़ज़ल के कथ्य और विषयवस्तु के स्तर पर हम तीनों लगभग एक ही धरातल पर खड़े नज़र आते हैं.
हम तीनों के पास कुछ गिनी-चुनी हल्दी की गांठें थी जिनके बलबूते हम अपनी अपनी परचून की दुकानें चला रहे थे. ४-५ वर्ष पूर्व हम तीनों ने मिलकर एक ग़ज़ल संग्रह छपवाने का विचार किया क्यों कि हम तीनों की कुल ग़ज़लें मिला कर मुश्किल से एक संग्रह के लायक सामग्री बन पा रही थी. लेकिन हम तीनों में एक और समानता है आलस्य जिसके कारण वह कार्य लंबित होता गया. इसी दौरान मेरी लोटरी निकल गयी और मेरे अकेले के पास इतनी ग़ज़लें हो गयी कि एक संग्रह प्रकाशित हो सके. मैं अपने मित्रों को अकेला छोड़ कर आगे निकल गया. वह अपराधबोध मुझे आज तक सालता रहा.
पिछले सप्ताह परमानंदजी ने मुझे एक मिसरा दे कर कहा अपन इस पर ग़ज़ल कहने का प्रयास करते हैं. तीन-चार दिनों में हम दोनों की ग़ज़लें तैयार हो गयी. तभी मैंने कहा अचलेश्वरजी को भी शामिल किया जा सके तो मज़ा आ जाएगा और अपनी त्रिवेणी संगम की मनोकामना पूरी हो जायेगी. तीन दिन से मैं अचलेश्वरजी से "आनंद" प्राप्त करने का प्रयास और प्रतीक्षा कर रहा था जो आज जा कर पूरी हुयी.
मिसरा इस प्रकार है : "ज़िंदगी अंदाज़ तेरा शायराना चाहिए"
मिसरा किसका है ये हमें पता नहीं. किसीका है भी या नहीं यह भी हम नहीं जानते. मेरे पास दो अच्छे जानकारों के मोबाईल नंबर थे.  एक श्री तिलक राज कपूर और दूसरे श्री सतपाल भाटिया. दोनों से पूछ लिया पर वे भी नहीं बता पाए. नेट पर खोजा तो बशीर बद्र साहब का एक शेर मिला
"आख़री हिचकी तेरे शानों पे आये 
मौत भी मैं शायराना चाहता हूँ"
हमने अपनी खोज को यहीं विराम दे दिया यह मान कर कि यह मिसरा भाई परमानंदजी के दिमाग की ही उपज है. फिर भी हमारे मारवाड़ी व्यापारियों की भाषा में कहूं तो "भूल-चूक, लेनी-देनी"
इस छोटी सी भूमिका के बाद पेश है तीनों ग़ज़लें.
स्वाभाविक रूप से पहले मैं:


दर्द गाना और पीड़ा गुनगुनाना चाहिए 
ज़िंदगी अंदाज़ तेरा शायराना चाहिए 

प्यार है तुझसे मुझे यह कह दिया काफी नहीं 
प्यार है तो आँख से भी छलछलाना चाहिए 


खोल कर आँखें उसे मत ढूंढिए चारों तरफ
यार के दीदार को बस सर झुकाना चाहिए 


कौन चिड़िया पेड़ कैसा और जंगल कौन सा
आँख चिड़िया की दिखे ऐसा निशाना चाहिए 


एक छप्पर गाँव के बरगद तले मैं डाल दूं 
उम्र के पिछले पहर कोई ठिकाना चाहिए 


धूप मेरे साथ में है दूर तक बारिश नहीं 
गर नहाना है पसीने में नहाना चाहिए 


उम्र भर बैठे रहे खामोश "जोगेश्वर" वहाँ 
बात की शुरुआत का कुछ तो बहाना चाहिए 

अब अचलेश्वर "आनंद"

गम हरिक बातिन खुशी हर जाहिराना चाहिए 
ज़िंदगी अंदाज़ तेरा शायराना चाहिए 


किसलिए मायूस गुमसुम किसलिए खामोश हैं 
इस चमन की बुलबुलों को चहचहाना चाहिए 


हक लिखा रज्जाक ने जिस रिज्क पर इंसान का 
नेकनामी से मिले वो आब-ओ-दाना चाहिए 


आकिलों का जोर बस इल्म-ओ-हुनर तक रह गया 
शायरी में दिल की तबियत आशिकाना चाहिए 


जिसको सुन कर खुशबू-ए-गुल खिल उठे ए हमनशीं
मन मिला कर महक में यूं गुनगुनाना चाहिए 


जिसकी हर दिल पर हुकूमत ऐ दिल-ए-नादान सुन 
अपनी हर धड़कन से उसमे दिल लगाना चाहिए 


"आनंद" के अशआर-ओ-आदाब उन सब के लिए
मर्द-ए-कामिल हर क़दम पर मुस्कुराना चाहिए


और अंत में परमानंद भट्ट 

मीर ग़ालिब-ओ-ज़फर का वो ज़माना चाहिए 
ज़िंदगी अंदाज़ तेरा शायराना चाहिए 

ख्वाब में भी क्यों खुदा से मांगिये ऊंचा मकान
चंद तिनकों का सही पर आशियाना चाहिए 


उम्र भर सुनते रहे हम ज़िंदगी की झिड़कियां
थक चुके सुन-सुन हमें अब सर उठाना चाहिए 


वो हमारी दास्ताँ जब भी सुनेगा गौर से 
अश्क उसकी आँख में तब झिलमिलाना चाहिए 


दूरियों नज़दीकियों के मायने कुछ भी नहीं 
जब कभी एकांत हो वो याद आना चाहिए 


उतर कर आकाश से कहने लगी किरणें हमें 
किसलिए अब दीप घर में टिमटिमाना चाहिए 


सहज में चर्चा करे जो वेद और वेदान्त की 
फिर कबीरा-सा हमें फक्कड़ दिवाना चाहिए 


जिस्म का आनंद यारों कुछ पलों का खेल है 
रूह का आनंद "परमानंद" पाना चाहिए 


अब आप समझ गए होंगे मैंने ग़ज़लों को इसी क्रम में क्यों प्रस्तुत किया ? आप लोग भी मेरी राय से अवश्य सहमत होंगे. मेरे दोनों मित्रों की ग़ज़लें मुझसे बेहतर हैं.
इस त्रिवेणी संगम पर आप की राय  की प्रतीक्षा रहेगी. 
  

Wednesday 2 June, 2010

सिर्फ कन्हैया सिर्फ कन्हैया

सामान्यतया एक ही ग़ज़ल के विभिन्न अशआर अपनेआप में स्वतंत्र इकाई होते हैं. रदीफ़/काफिया के बंधन की बात छोड़ दें तो कथ्य की दृष्टि से हर शेर एक स्वतंत्र एवं परिपूर्ण कविता होती है. रदीफ़, काफिया और बहर उन स्वतंत्र इकाइयों को एक बड़ी इकाई का स्वरुप प्रदान करते है. मगर कभी कभी ऐसा भी होता है कि किसी ग़ज़ल के सारे शेर एक ही विषय-वस्तु को अलग अलग दृष्टिकोण से परिभाषित और विस्तारित करते हैं. उर्दू अदब में ऐसी ग़ज़ल को मुसलसल ग़ज़ल कहा जाता है.

अपनी १०० वीं पोस्ट के रूप में आज मैं ऐसी ही एक मुसलसल ग़ज़ल आपकी सेवा में प्रस्तुत कर रहा हूँ. इस में कन्हैया के प्रति एवं कन्हैया से सम्बंधित मुद्दों पर राधा एवं उनकी सखियों का दृष्टिकोण प्रकट हो रहा है. चूंकि कृष्ण १६ कलाओं से परिपूर्ण अवतार थे इसलिए इस ग़ज़ल के कुल अशआर भी १६ ही हैं. शेष व्याख्या आप लोग ही करेंगे तो अधिक अच्छा रहेगा.

ब्रज की यह अरदास कन्हैया 
पुन: रचा दे रास कन्हैया 

मुरझाई सब सखी सहेली 
राधा आज उदास कन्हैया 

विरह अगन जीवन भर झेली 
छोटा सा मधुमास कन्हैया 

बछड़े भूले मां के थन को
गौ ने छोड़ा ग्रास कन्हैया 

यमुना हो गयी और सांवरी 
तुम ले गए उजास कन्हैया 

तुम बिन दही लगे है खट्टा 
मक्खन में न मिठास कन्हैया 

तन की आँखों से ओझल हो 
मन के हर पल पास कन्हैया 

मन में आप समाये ऐसे 
ज्यों फूलों में बास कन्हैया 

हम हरगिज जाने ना देते 
यदि होता अहसास कन्हैया 

मेले ठेले उत्सव अवसर 
तुम बिन क्या उल्लास कन्हैया 

कुञ्ज गली भूतों का डेरा 
घर में भी बनवास कन्हैया 

उद्धव दे कर ज्ञान प्रेम का 
करते हैं उपहास कन्हैया 

इक पल भी तुमको नहीं भूले 
करते खूब प्रयास कन्हैया 

कौन कृष्ण है कौन द्वारिका 
ब्रज का तो विश्वास कन्हैया 

सिर्फ कन्हैया सिर्फ कन्हैया 
आती जाती श्वास कन्हैया 

"जोगेश्वर" जीवन की रक्षक 
पुनर्मिलन की आस कन्हैया 

Tuesday 1 June, 2010

आभार

मित्रों !
आप सब को सादर प्रणाम !
इन्टरनेट की कृपा से चिट्ठा जगत का प्रादुर्भाव हुआ और देखते ही देखते सब को अपने जाल में लपेट लिया. जाने-अनजाने मैं भी इस जाल में आ टपका. आप सबने गर्म-जोशी से स्वागत किया तो मैं यहीं टिक गया. वर्ष २००९ के जून महीने की दूसरी तारीख को मैंने अपने ब्लॉग पर पहली पोस्ट चस्पा की थी. देखते ही देखते एक वर्ष बीत गया. महीनों में एक-आध ग़ज़ल कहने वाला मैं एक वर्ष में ९० से अधिक ग़ज़लें पोस्ट कर गया. यह सब न केवल मेरे मित्रों को (जो मुझे नजदीक से जानते हैं) आश्चर्य-चकित करने वाली अपितु मुझे भी अचंभित करने वाली बात थी. क्यों ? बताता हूँ.
मुझमे दो बड़ी कमियाँ हैं. एक आलस्य और दूसरे अत्यधिक प्रवास करना. इन दोनों के कारण एक स्थान पर लगातार बहुत देर तक बैठ कर लंबा चौड़ा आलेख लिख लेना मेरे लिए असाध्य सा है. इसीलिये मैंने लेख, नाटक या कहानी आदि लिखने से हमेशा परहेज किया. पद्य में भी मुझे वही विधाएं रास आयी जिनमे कम से कम शब्दों में अधिक से अधिक बात कही जा सके, जैसे दोहा, सोरठा, कुण्डली आदि. मैं यह भी नहीं चाहता था कि देश-काल-परिस्थिति के बदलते ही मेरी बात बेमानी अथवा अप्रासंगिक हो जाए. इसीलिये मुझे ग़ज़ल विधा सर्वाधिक पसंद आयी. ग़ज़ल वह विधा है जो आपके कथन को कालजयी बना सकती है.
१९७५ के दिसंबर माह में मैं राजस्थान के एक जिला मुख्यालय पाली की जेल में भारत सुरक्षा क़ानून के तहत बंदी था. वे श्रीमती इंदिरा गांधी द्वारा देश पर थोपे गए आपातकाल के दिन थे और मैंने आपातकाल के विरुद्ध सत्याग्रह किया था. उस समय हम लोगों के पढ़ने के लिए बाहर से हमारे साथी पत्र-पत्रिकाएँ एवं पुस्तकें जेल में भेजते थे. उनमे से एक था "सारिका" का दुष्यंत कुमार को श्रद्धांजलि विशेषांक. मेरे साथियों में से शायद ही कोई होगा जिसने उस पुस्तक में कुछ रूचि ली हो. इसलिए सारिका के उस अंक पर मेरा एकाधिकार हो गया. उसको आद्योपांत पढ़ कर मैंने जाना स्वर्गीय दुष्यंत को और उनकी सीधी सरल और बोलचाल की भाषा में लिखी "हिंदी" ग़ज़लों को. नामी-गरामी उर्दू शायरों की शायरी को देवनागरी लिपि में हिंद पॉकेट बुक्स के माध्यम से (संकलन कर्ता प्रकाश पंडित) मैंने किशोरावस्था ही में पढ़ लिया था. दुष्यंत को पढ़ कर लगा कि यह वह विधा है जिस के माध्यम से मैं स्वयं को अभिव्यक्त कर पाउँगा. बस हाथ पाँव मारने शुरू कर दिए. वो दिन था और आज का दिन है. 34 वर्षों के बाद आज इतना कहने की हिम्मत जुटा पा रहा हूँ कि हाँ, घुटनों के बल चलना तो सीख ही लिया है.
विगत एक वर्ष के दौरान जिन जिन सज्जनों और देवियों ने मेरे ब्लॉग तक पहुँच कर मुझे पढ़ने की कृपा की उन सबका धन्यवाद. जिन्होंने सटीक टिप्पणियाँ करके मेरी हौसला-अफजाई की उनका विशेष आभार. मैं उन लोगों का सदैव ऋणी रहूँगा जिन्होंने मेरे सृजन में खोट एवं त्रुटी को पहचान कर मुझे सुधार करने का अवसर दिया. ऐसे ही प्यार भरे परामर्श एवं स्नेह-सिक्त मार्गदर्शन की सदैव अपेक्षा एवं प्रतीक्षा रहेगी. कल 2 जून को आपकी सेवा में अपनी शतकीय प्रविष्टि के साथ उपस्थित होउंगा. तब तक के लिए नमस्कार !

Monday 31 May, 2010

जब कभी की नहीं खता मैंने

जब कभी की नहीं खता मैंने
खूब पायी तभी सज़ा मैंने

आपने सुन लिया वही सब कुछ
जो कभी भी नहीं कहा मैंने

क्या शिकायत करुँ ज़माने की
आप भी हैं खफा सुना मैंने

आप भी तो कभी सुनें मेरी
आप को उम्र भर सुना मैंने

आ गया मैं तभी निशाने पर
आप को ज़िंदगी कहा मैंने

आपको देख लूं कि सुन ही लूं
यूं करी रोज इब्तिदा मैंने

राज़ को राज़ तुम रखोगे क्या
आपको तो दिया बता मैंने

कुछ न पक्का बता सका कोई
खूब पूछा तेरा पता मैंने

ग़ज़ल "जोगेश्वर" न बनी यूं ही
जो कि भुगता सहा लिखा मैंने

Saturday 29 May, 2010

जैसे ख्वाब दिखाए तूने

जैसे ख्वाब दिखाए तूने वैसी अब ताबीरें दे
मेरी आँखों में बस जाए ऐसी कुछ तस्वीरें दे

और मुझे कुछ दे या ना दे मौला तेरी मर्जी है
दानिशमंदी की दौलत दे हिम्मत की जागीरें दे

राम भरोसे मुल्क हमारा जो होगा अच्छा होगा
नेता से उम्मीद यही बस अच्छी सी तक़रीरें दे

जब चाहूँ तब बातें तुझसे जब चाहूँ दीदार तेरा
मेरे हाथों में भी मालिक ऐसी चंद लकीरें दे

मेरे हिस्से की खुशियाँ सब मेरे अपनों में बांटो
और मुझे झोली भर-भर के उन अपनों की पीरें दे

जीवन के इस महा समर में अभी बहुत लड़ना बाकी
दिल में खूब हौसला भर दे हाथों में शमशीरें दे

मन तेरा चंचल "जोगेश्वर" इसे भटकने से रोको
तगड़े-तगड़े ताले जड़ दे मोटी-सी जंजीरें दे

Friday 28 May, 2010

फूल मत तू

फूल मत तू सफलता की हाथ चाबी देख कर
लोग तो जलते रहेंगे कामयाबी देख कर

Thursday 27 May, 2010

मिले मज़बूत को मज़बूतियाँ हर पल सहारे भी

मिले मज़बूत को मज़बूतियाँ हर पल सहारे भी 
उन्हें हासिल हमेशा ही निगाहें भी नज़ारे भी 

Wednesday 26 May, 2010

ये पुरानी बात है

सब सही था ये पुरानी बात है
आज बेकाबू बहुत हालात है

Sunday 16 May, 2010

कहूं शाम इसको कहूं या सवेरा

कहूं शाम इसको कहूं या सवेरा 
कभी है उजाला कभी फिर अन्धेरा 

Saturday 15 May, 2010

श्रद्धांजलि

भैरों सिंह जी आप थे जन-जन का विश्वास 
निज जीवन से आपने रचा नया इतिहास 

रचा नया इतिहास भूल कैसे हम जाएँ 
सीख सीख कर आपसे अपना फ़र्ज़ निभाएं 

पहले तो प्रत्यक्ष थे अब केवल आभास 
भैरों सिंह जी आप थे जन-जन का विश्वास 

(श्रद्धेय भैरों सिंह जी शेखावत, पूर्व उपराष्ट्रपति, भारत सरकार एवं पूर्व मुख्यमंत्री, राजस्थान सरकार का आज स्वर्गवास हो गया. दिवंगत को अश्रु-पूरित श्रद्धांजलि !)


Friday 14 May, 2010

जो बन्दा बिंदास रे जोगी

जो बन्दा बिंदास रे जोगी 
दुनिया उसकी दास रे जोगी 

Monday 10 May, 2010

किसी को बना दे किसी को मिटा दे

किसी को बना दे किसी को मिटा दे 
खुदा है कि क्या है मुझे तू बता दे 

Thursday 6 May, 2010

रौशनी कर

रौशनी कर 
घर जला कर

Saturday 1 May, 2010

सब मुझको समझायेंगे

सब मुझको समझायेंगे 
फिर तुमको बहलाएँगे 

Monday 26 April, 2010

जल प्रदूषित और ज़हरीली हवाएं देखिये

जल प्रदूषित और ज़हरीली हवाएं देखिये 
और फिर उनके बयानों की अदाएं देखिये 

Thursday 22 April, 2010

कुछ मेरी नादानी थी

कुछ मेरी नादानी थी 
कुछ उनकी मनमानी थी 

Tuesday 13 April, 2010

हुआ है क्या अजब हम पर

हुआ है क्या अजब हम पर मुहब्बत का असर देखो 
इधर मैं होश खो बैठा उधर तू बेखबर देखो 

Friday 9 April, 2010

कुछ तो हम पागल दीवाने लगते हैं

कुछ तो हम पागल दीवाने लगते हैं
और उधर कुछ आप सयाने लगते हैं

Sunday 4 April, 2010

पावन गंगा नीर ग़ज़ल

पावन गंगा नीर ग़ज़ल 
सागर-सी गंभीर ग़ज़ल 

Thursday 25 March, 2010

कभी देखे न ऐसा दौर तू भी

कभी देखे न ऐसा दौर तू भी 
हमारी बात पर कर गौर तू भी 

Monday 22 March, 2010

अवतारों के उपदेशों का

अवतारों के उपदेशों का सब ग्रंथों का सार यही है 
ढाई आखर पढ़ ले बन्दे कबीरा तूने खूब कही है 

Friday 19 March, 2010

नव-वर्ष की शुभ-कामना

चैत्र शुक्ल प्रतिपदा [दिनांक १६ मार्च, २०१०] को विक्रम संवत २०६७ प्रारम्भ हुआ. प्रवास पर होने के कारण नव-वर्ष की शुभ-कामना पोस्ट नहीं कर पाया. क्षमा-प्रार्थी हूँ. देर से ही सही आप सब को नव-वर्ष की हार्दिक शुभ-कामनाएं !संवत २०६७ आपके लिए शुभ एवं लाभ का दाता बने  यही प्रार्थना !

चैत्र शुक्ल की प्रतिपदा, मंगलमय नव-वर्ष 
मना रहा आनंद से, सारा भारत-वर्ष 


सारा भारत-वर्ष, उठा कर शीश अड़ा है  
अंगद-सा ख़म ठोक, भुजाएं तोल खडा है 


बनना फिर से विश्व-गुरु, समझो यह निष्कर्ष 
चैत्र शुक्ल की प्रतिपदा, मंगलमय नव-वर्ष 

Saturday 13 March, 2010

कभी तोड़ा कभी छोड़ा

कभी तोड़ा कभी छोड़ा कभी छेड़ा बहाने से 
हमारा दिल कभी हटता नहीं उनके निशाने से 

Monday 1 March, 2010

होली में

करे हैं रंग का बू का सभी व्यापार होली में 
मुहब्बत कम से कमतर हो रही हर बार होली में 

Saturday 27 February, 2010

बुरा न मानो होली है

उन्हें सख्त परहेज है हम को भाये रंग 
वो भी हमसे तंग हैं हम भी उनसे तंग 

Tuesday 16 February, 2010

ईंट पत्थर ढूँढता है

ईंट पत्थर ढूँढता है
फिर मेरा सर ढूँढता है

Sunday 14 February, 2010

न सोचा था कभी

न सोचा था कभी दे जाएगा ऐसी सज़ा कोई
कभी कह जाएगा यारों मुझे भी बेवफा कोई

Wednesday 3 February, 2010

दुनिया आनी-जानी है

दुनिया आनी-जानी है
चिपके तो नादानी है

Sunday 10 January, 2010

अर्ज़ भगवान से ये है

अर्ज़ भगवान से ये है किसी दिन गर सुने मेरी 
तुम्हारी आँख का पानी हथेली पर गिरे मेरी 

Tuesday 5 January, 2010

किस्से और कहानी भी

किस्से और कहानी भी
दिल में और जुबानी भी