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Friday, 13 November 2009

कतारें लगा कर खडा आदमी

कतारें लगा कर खडा आदमी
मुझे भी बना दो बड़ा आदमी

कभी तान सीना खडा आदमी
कभी बुजदिलों सा पडा आदमी

बड़ा ठोस चट्टान सा था मगर
ज़रा छू लिया रो पडा आदमी

लगे खूबसूरत मगर अर्थ क्या
नगीने सरीखा जडा आदमी

मिले चार पैसे कि पद मिल गया
गया बिन पिए लड़खडा आदमी

कभी हो गया फूल से भी नरम
कभी पत्थरों से कडा आदमी

करे याद दुनिया कि था "जोगेश्वर"
उसूलों की खातिर लड़ा आदमी

3 comments:

शोभित जैन said...

मिले चार पैसे कि पद मिल गया
गया बिन पिए लड़खडा आदमी ..

आपकी हर पोस्ट आपसे उम्मीद बढा जाती है और हर अगली नज़्म उस उम्मीद पर खरी उतरती है ....

Udan Tashtari said...

बड़ा ठोस चट्टान सा था मगर
ज़रा छू लिया रो पडा आदमी


-बहुत बढ़िया!!

Devendra Suthar said...

"मुझे भी बना दो बड़ा आदमी" ,पढ़ कर कुछ पंक्तिया मेरे दिमाग में उभर कर आई है--

मैं आज भी उसी मोड़ पर खड़ा हूँ,
टूटी हुई तलवार से अपनी किस्मत से लड़ रहा हूँ
आने वाले आ रहे है,
जाने वाले जा रहे है
एक मैं खड़ा हूँ ,
जो सबको देख रहा हूँ -देख रहा हूँ
और सिर्फ़ देख रहा हूँ