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Tuesday, 16 February 2010

ईंट पत्थर ढूँढता है

ईंट पत्थर ढूँढता है
फिर मेरा सर ढूँढता है

एक कुनबा मुश्किलों का
क्यों मेरा घर ढूँढता है

हाथ में कैंची लिए वो
फैलते पर ढूंढता है

राम भी हनुमान जैसे
और वानर ढूँढता है

भक्त भूले देवता को
और तस्कर ढूँढता है

मरहमों से तंग आकर
ज़ख्म खंज़र ढूँढता है

प्यार की दो बूँद काफी
क्यों समंदर ढूँढता है

मुफलिसी के दौर में भी
लाव-लश्कर ढूँढता है

सूर्य ने क्या खो दिया है
रोज़ दर दर ढूँढता है

है वही इंसान हर पल
और बेहतर ढूँढता है

रत्न "जोगेश्वर" गँवा कर
कांच-कंकर ढूँढता है

6 comments:

Tej said...

bahut sundar............

Tej said...

bahut sundar rachna

वीनस केसरी said...

मतले से मकता तक हर शेर बेहतरीन है

मतला खास पसन्द आया

भक्त भूले देवता को
और तस्कर ढूँढता है

इस शेर में कुछ अटकन लगी

राम भी हनुमान जैसे
और वानर ढूँढता है

ये शेर भी बहुत पसंद आया

Udan Tashtari said...

बहुत बेहतरीन!

तिलक राज कपूर said...

मैं तो एक फिर कहूँगा, जय अंर्तजाल। जिसकी बदौलत आपके ब्‍लॉंग तक पहुँचना और आपकी ग़ज़ल पढ़ना संभव हो सका।
मुज़ाहिफ शक्‍ल में बह्र को निबाहना वो भी इस खूबसूरती और नफ़ासत से कि कोई शेर बह्र के पिंजरे से बाहर ना जाये और बात पूरी कहे। हर शेर एक बेहतरीन कहन समेटे हुए। वाह साहब वाह।

gazalkbahane said...

सूर्य ने क्या खो दिया है
रोज़ दर दर ढूँढता है
bahut khoob sahib
mera andaj bhi gaur karen
हर रोज ही तो है सफर करता मगर
सूरज कभी बूढ़ा नहीं होता सखा