ईंट पत्थर ढूँढता है
फिर मेरा सर ढूँढता है
एक कुनबा मुश्किलों का
क्यों मेरा घर ढूँढता है
हाथ में कैंची लिए वो
फैलते पर ढूंढता है
राम भी हनुमान जैसे
और वानर ढूँढता है
भक्त भूले देवता को
और तस्कर ढूँढता है
मरहमों से तंग आकर
ज़ख्म खंज़र ढूँढता है
प्यार की दो बूँद काफी
क्यों समंदर ढूँढता है
मुफलिसी के दौर में भी
लाव-लश्कर ढूँढता है
सूर्य ने क्या खो दिया है
रोज़ दर दर ढूँढता है
है वही इंसान हर पल
और बेहतर ढूँढता है
रत्न "जोगेश्वर" गँवा कर
कांच-कंकर ढूँढता है
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6 comments:
bahut sundar............
bahut sundar rachna
मतले से मकता तक हर शेर बेहतरीन है
मतला खास पसन्द आया
भक्त भूले देवता को
और तस्कर ढूँढता है
इस शेर में कुछ अटकन लगी
राम भी हनुमान जैसे
और वानर ढूँढता है
ये शेर भी बहुत पसंद आया
बहुत बेहतरीन!
मैं तो एक फिर कहूँगा, जय अंर्तजाल। जिसकी बदौलत आपके ब्लॉंग तक पहुँचना और आपकी ग़ज़ल पढ़ना संभव हो सका।
मुज़ाहिफ शक्ल में बह्र को निबाहना वो भी इस खूबसूरती और नफ़ासत से कि कोई शेर बह्र के पिंजरे से बाहर ना जाये और बात पूरी कहे। हर शेर एक बेहतरीन कहन समेटे हुए। वाह साहब वाह।
सूर्य ने क्या खो दिया है
रोज़ दर दर ढूँढता है
bahut khoob sahib
mera andaj bhi gaur karen
हर रोज ही तो है सफर करता मगर
सूरज कभी बूढ़ा नहीं होता सखा
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