कुछ मेरी नादानी थी
कुछ उनकी मनमानी थी
अब ग़म हैं पगलाए से
तब खुशियाँ दीवानी थी
विरह अगन सा था लेकिन
तेरी यादें पानी थी
लगती थी कितनी प्यारी
बातें जो बचकानी थी
कभी मिलो तन्हाई में
कुछ बातें समझानी थी
खा खा कर झूठी कसमें
सच्ची बात छुपानी थी
आग बुझाओ "जोगेश्वर"
उनको आग लगानी थी
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8 comments:
badhiya ghazal..par pahle wali ghazlon jitni nahi .. :)
बहुत सुंदर रचना. मज़ा आया पढ़ कर.
बहुत सुन्दर रचना है। बधाई ।
अब ग़म हैं पगलाए से
तब खुशियाँ दीवानी थी
लगती थी कितनी प्यारी
बातें जो बचकानी थी
पुराना बहुत कुछ याद आ गया :)
उम्दा
अब ग़म हैं पगलाए से
तब खुशियाँ दीवानी थी
लगती थी कितनी प्यारी
बातें जो बचकानी थी
पुराना बहुत कुछ याद आ गया :)
उम्दा
जोगेश्वरजी
छोटी बहर में अच्छी ग़ज़ल कहने का काम किया है आपने । हां , ग़ज़ल-सी गहराई का कुछ अभाव एकाध जगह दिखाई देता है ।
"शस्वरं" पर दूसरी पोस्ट देखने पधारें।
http://shabdswarrang.blogspot.com
एक-दो दिन में ही नई पोस्ट लगने वाली है ।
भाई साहेब , "नादानी" पर मेरी ओर से कुछ दो शब्द
ग़म जो लिखे थे क़िस्मत में,
तो खुशियां कहां से आनी थी,
ख़ाबों को हक़ीकत समझ बैठे,
यही तो हमारी नादानी थी
खा खा कर झूठी कसमें
सच्ची बात छुपानी थी .
नित्य की छोटी सी बात को किस गहराइ से उकेरा है । कमाल है !!!!!
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