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Thursday, 22 April 2010

कुछ मेरी नादानी थी

कुछ मेरी नादानी थी 
कुछ उनकी मनमानी थी 

अब ग़म हैं पगलाए से 
तब खुशियाँ दीवानी थी 

विरह अगन सा था लेकिन 
तेरी यादें पानी थी 

लगती थी कितनी प्यारी 
बातें जो बचकानी थी 

कभी मिलो तन्हाई में 
कुछ बातें समझानी थी 

खा खा कर झूठी कसमें 
सच्ची बात छुपानी थी 

आग बुझाओ "जोगेश्वर" 
उनको आग लगानी थी 

8 comments:

स्वप्निल तिवारी said...

badhiya ghazal..par pahle wali ghazlon jitni nahi .. :)

Anonymous said...

बहुत सुंदर रचना. मज़ा आया पढ़ कर.

परमजीत सिहँ बाली said...

बहुत सुन्दर रचना है। बधाई ।

वीनस केसरी said...

अब ग़म हैं पगलाए से
तब खुशियाँ दीवानी थी

लगती थी कितनी प्यारी
बातें जो बचकानी थी

पुराना बहुत कुछ याद आ गया :)
उम्दा

वीनस केसरी said...

अब ग़म हैं पगलाए से
तब खुशियाँ दीवानी थी

लगती थी कितनी प्यारी
बातें जो बचकानी थी

पुराना बहुत कुछ याद आ गया :)
उम्दा

Rajendra Swarnkar : राजेन्द्र स्वर्णकार said...

जोगेश्वरजी
छोटी बहर में अच्छी ग़ज़ल कहने का काम किया है आपने । हां , ग़ज़ल-सी गहराई का कुछ अभाव एकाध जगह दिखाई देता है ।

"शस्वरं" पर दूसरी पोस्ट देखने पधारें।
http://shabdswarrang.blogspot.com
एक-दो दिन में ही नई पोस्ट लगने वाली है ।

देवेन्द्र सुथार said...

भाई साहेब , "नादानी" पर मेरी ओर से कुछ दो शब्द

ग़म जो लिखे थे क़िस्मत में,
तो खुशियां कहां से आनी थी,
ख़ाबों को हक़ीकत समझ बैठे,
यही तो हमारी नादानी थी

किरण राजपुरोहित नितिला said...

खा खा कर झूठी कसमें
सच्ची बात छुपानी थी .


नित्य की छोटी सी बात को किस गहराइ से उकेरा है । कमाल है !!!!!