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Thursday, 5 November 2009

कब सोचा था

कब सोचा था इतना सब कुछ कर जायेगी
गाय विदेशी अक्ल हमारी चर जायेगी

उम्मीदें नाकाम तमन्ना मर जायेगी
इसकी जिम्मेदारी किसके सर जायेगी

चट्टानी लहरें हद पार गुज़र जायेगी
कश्ती मेरी फ़िर भी पार उतर जायेगी

यूँ तो महफ़िल में हर ओर नज़र जायेगी
उनको देखा तो फ़िर वहीं ठहर जायेगी

उम्मीदें उड़ जायेंगी काफूर सरीखी
पारे-सी आशाएं बिखर बिखर जायेगी

सुबह छुपा कर रख देता हूँ अखबारों को
मेरी बेटी पढ़ लेगी तो डर जायेगी

"जोगेश्वर" का द्वार किसी दिन बंद मिला तो
बेचारी तन्हाई किसके घर जायेगी

2 comments:

शोभित जैन said...

ek baar phir se dil jitne mein kamyaab jogeshwar ji....Har sher lajbaab

के सी said...

आपके इस हुनर का तो पता भी न था.
अच्छे शेर हैं और ग़ज़ल मुकम्मल है पहले शेर में जो राजनैतिक प्रतिबद्धता है वह ग़ज़ल के बाकी शेर से अलग मूड की है.