मित्रों !
आप सब को सादर प्रणाम !
इन्टरनेट की कृपा से चिट्ठा जगत का प्रादुर्भाव हुआ और देखते ही देखते सब को अपने जाल में लपेट लिया. जाने-अनजाने मैं भी इस जाल में आ टपका. आप सबने गर्म-जोशी से स्वागत किया तो मैं यहीं टिक गया. वर्ष २००९ के जून महीने की दूसरी तारीख को मैंने अपने ब्लॉग पर पहली पोस्ट चस्पा की थी. देखते ही देखते एक वर्ष बीत गया. महीनों में एक-आध ग़ज़ल कहने वाला मैं एक वर्ष में ९० से अधिक ग़ज़लें पोस्ट कर गया. यह सब न केवल मेरे मित्रों को (जो मुझे नजदीक से जानते हैं) आश्चर्य-चकित करने वाली अपितु मुझे भी अचंभित करने वाली बात थी. क्यों ? बताता हूँ.
मुझमे दो बड़ी कमियाँ हैं. एक आलस्य और दूसरे अत्यधिक प्रवास करना. इन दोनों के कारण एक स्थान पर लगातार बहुत देर तक बैठ कर लंबा चौड़ा आलेख लिख लेना मेरे लिए असाध्य सा है. इसीलिये मैंने लेख, नाटक या कहानी आदि लिखने से हमेशा परहेज किया. पद्य में भी मुझे वही विधाएं रास आयी जिनमे कम से कम शब्दों में अधिक से अधिक बात कही जा सके, जैसे दोहा, सोरठा, कुण्डली आदि. मैं यह भी नहीं चाहता था कि देश-काल-परिस्थिति के बदलते ही मेरी बात बेमानी अथवा अप्रासंगिक हो जाए. इसीलिये मुझे ग़ज़ल विधा सर्वाधिक पसंद आयी. ग़ज़ल वह विधा है जो आपके कथन को कालजयी बना सकती है.
१९७५ के दिसंबर माह में मैं राजस्थान के एक जिला मुख्यालय पाली की जेल में भारत सुरक्षा क़ानून के तहत बंदी था. वे श्रीमती इंदिरा गांधी द्वारा देश पर थोपे गए आपातकाल के दिन थे और मैंने आपातकाल के विरुद्ध सत्याग्रह किया था. उस समय हम लोगों के पढ़ने के लिए बाहर से हमारे साथी पत्र-पत्रिकाएँ एवं पुस्तकें जेल में भेजते थे. उनमे से एक था "सारिका" का दुष्यंत कुमार को श्रद्धांजलि विशेषांक. मेरे साथियों में से शायद ही कोई होगा जिसने उस पुस्तक में कुछ रूचि ली हो. इसलिए सारिका के उस अंक पर मेरा एकाधिकार हो गया. उसको आद्योपांत पढ़ कर मैंने जाना स्वर्गीय दुष्यंत को और उनकी सीधी सरल और बोलचाल की भाषा में लिखी "हिंदी" ग़ज़लों को. नामी-गरामी उर्दू शायरों की शायरी को देवनागरी लिपि में हिंद पॉकेट बुक्स के माध्यम से (संकलन कर्ता प्रकाश पंडित) मैंने किशोरावस्था ही में पढ़ लिया था. दुष्यंत को पढ़ कर लगा कि यह वह विधा है जिस के माध्यम से मैं स्वयं को अभिव्यक्त कर पाउँगा. बस हाथ पाँव मारने शुरू कर दिए. वो दिन था और आज का दिन है. 34 वर्षों के बाद आज इतना कहने की हिम्मत जुटा पा रहा हूँ कि हाँ, घुटनों के बल चलना तो सीख ही लिया है.
विगत एक वर्ष के दौरान जिन जिन सज्जनों और देवियों ने मेरे ब्लॉग तक पहुँच कर मुझे पढ़ने की कृपा की उन सबका धन्यवाद. जिन्होंने सटीक टिप्पणियाँ करके मेरी हौसला-अफजाई की उनका विशेष आभार. मैं उन लोगों का सदैव ऋणी रहूँगा जिन्होंने मेरे सृजन में खोट एवं त्रुटी को पहचान कर मुझे सुधार करने का अवसर दिया. ऐसे ही प्यार भरे परामर्श एवं स्नेह-सिक्त मार्गदर्शन की सदैव अपेक्षा एवं प्रतीक्षा रहेगी. कल 2 जून को आपकी सेवा में अपनी शतकीय प्रविष्टि के साथ उपस्थित होउंगा. तब तक के लिए नमस्कार !
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7 comments:
बहुत खूब ...जोगेश्वर जी ,आपके बारे में इतना सब kuchh जानकार अच्छा लगा ,सबसे पहले तो शुभकामनाये...और फिर तारीफ़ ...आप बहुत ही लाजवाब लिखते है ,,,अच्छा लिखने के लिए शब्दसीमा मापदंड नहीं ,,गद्ध हो या पद्ध ...लेखन में गहराई ho ,,,आपकी ग़ज़लों में वो hai ,,,सब जो होना चाहिए ..लिखते रहे ...धन्यवाद
पोस्ट में लेख देख कर एक सेकेण्ड के लिए भ्रमित हो गये, पोस्ट गिनी तो समझ आ यह ९९वीं पोस्ट है फिर पढ़ कर पक्का हो गया
अब तो बेसब्री से कल की पोस्ट का इंतज़ार है
इंतज़ार है एक नायाब गज़ल का ...
ब्लॉग की प्रथम वर्षगांठ पर आपको बहुत बधाई एवं हार्दिक शुभकामनाएँ.
चलिए, अगली पोस्ट पर शतक की बधाई देने के लिए तैयार बैठे हैं.
bahut achha laga pad kar bahut bahut badhai aap ko
http://kavyawani.blogspot.com/
intzaar hai sir aapki sauvin post ka ..har baar ki tarah jaandaar hi hogi
स्वर्गीय दुष्यन्त कुमार पर छपे सारिका के विशेषॉंक से एक संबंध मेरा भी है। मुझे उन दिनांक नया नया शौक हुआ था साहित्यिक पत्रिका का। पढ़ते-पढ़ते कब ऑंख लग गयी, पता नहीं लगा। एकाएका ऑंख खुली तो पाया कि पास में ही बँधी हमारी गाय उसे लगभग खा चुकी है। कुछ करने को नहीं बचा था।
जब मैनें ग़ज़ल कहना आरंभ किया तो लोग कहते थे कि दुष्यन्त कुमार का प्रभाव है और मैं स्मरण करता था उस गाय को जिसने वह विशेषॉंक खाया और जिसका दूध मैनें पिया।
एक विचित्र सा योग रहा लेकिन मेरे लिये स्मरणीय रहेगा।
आज पहली बार आना हुआ आपके ब्लॉग पर और आपको ब्लॉगजगत में देखकर बहुत ख़ुशी हुई |
शुभकामनाएँ
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