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Thursday, 27 August 2009

अब कहाँ मज़नूं रहे

अब कहाँ मज़नूं रहे लैला नदारद हो गयी
अब मुहब्बत तो महज घर की सजावट हो गयी

बदलना सम्भव नहीं है लाख कोशिश कीजिये
उस विधाता की कलम से जो लिखावट हो गयी

बाप के साए तले महफूज़ बेटी अब नहीं
कलयुगी इस बाप में कितनी गिरावट हो गयी

देख कर मैली चदरिया अब बुरा लगता नहीं
दाग अब फैशन हुए ऐसी बुनावट हो गयी

सच कहा तो हाल मेरा हो गया ऐसा यहाँ
बन गए दुश्मन सभी सबसे अदावत हो गयी

जब कभी उंगली उठी मेरी वफ़ा पर बेवज़ह
तब लहू उबला मेरा मुझसे बगावत हो गयी

छोड़ "जोगेश्वर" कहानी तेल घी परचून की
प्यार में मनुहार तक में भी मिलावट हो गयी

5 comments:

वीनस केसरी said...

जब कभी उंगली उठी मेरी वफ़ा पर बेवज़ह
तब लहू उबला मेरा मुझसे बगावत हो गयी

बहुत खूब
वीनस केसरी

Udan Tashtari said...

हमें भी तो देखो... :)

बेहतरीन!!

शोभित जैन said...

Bahut khoob jogeshwar ji ..ek aur behtareen rachna....

Sumer Chopra said...

क्या खूब कहा है !

dev chouhan said...

yehi to kalyug ki pahchan hai... kya khoob pahchana aapne sabji devisingh R siyana