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Wednesday 30 September, 2009

लोग जो बहरूपिया बन उम्र भर छलते रहे

लोग जो बहरूपिया बन उम्र भर छलते रहे
छा गए दिल पर दिमागों में वही चलते रहे

ठिठुरते कुछ लोग आए आंच ली चलते बने
हम अलावों की तरह तपते रहे जलते रहे

ठोकरें खाते रहे कड़वी हकीकत की मगर
बावरे मन में सुनहरे स्वप्न भी पलते रहे

हो चुका साबित इरादा था चमन को लूटना
क्यों लुटेरों को सज़ा के फैसले टलते रहे

ठीक है हस्ती हमारी वो मिटा पाये नहीं
दुश्मनों की आँख में हम उम्र भर खलते रहे

सीख कर आए कहाँ से लोग पानी का हुनर
जिस सुराही में डले उस रूप में ढलते रहे

रौनकें इस बाग़ की कुछ मनचलों की मिल्कीयत
बागबां लाचार अपने हाथ ही मलते रहे


भूल "जोगेश्वर" तुम्हारी दोष किसको दीजिये
आस्तीनों में तुम्हारे सांप गर पलते रहे

2 comments:

निर्मला कपिला said...

सीख कर आए कहाँ से लोग पानी का हुनर
जिस सुराही में डले उस रूप में ढलते रहे

रौनकें इस बाग़ की कुछ मनचलों की मिल्कीयत
बागबां लाचार अपने हाथ ही मलते रहे
बहुत सुन्दर रचना है बधाई

समयचक्र said...

लोग जो बहरूपिया बन उम्र भर छलते रहे
छा गए दिल पर दिमागों में वही चलते रहे

बहुत सुन्दर क्या सोच है उम्दा