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Wednesday 26 May, 2010

ये पुरानी बात है

सब सही था ये पुरानी बात है
आज बेकाबू बहुत हालात है

ज़िंदगी आघात-दर-आघात है
एक पल शह दूसरे पल मात है

जातियां तो जिस्म की मज़बूरियाँ
रूह की ना पांत है न जात है

क्या अमावस पूर्णिमा को खा गयी
क्यों भला इतनी अंधेरी रात है

हर कदम पर है सितारों का असर
आदमी की क्या यहाँ औकात है 

सफलताएं चरण उनके चूमती
साजिशों में जो बहुत निष्णात है

है खिलौना आदमी का दिल यहाँ
खेलने के ही लिए जज्बात है

किस तरह अहसान उतरे आपका
ज़ख्म सारे आपकी सौगात है

जिस्म "जोगेश्वर" जलाती है हवा   
रूह पर तेज़ाब सी बरसात है

5 comments:

स्वप्निल तिवारी said...

behad achhi ghazal jogeshwar ji ..sare sher pasand aaye..sare ucch koti ke hain

Unknown said...

मानवीय अऩुभूतियों की सशक्त व सार्थक अभिव्यक्ति गजल में हुई है......रूह सब सांसारिक बन्धनों से मुक्त है बन्धन तो जिस्म के हिस्से है.......क्या खूब कहा आपने.......श्रेष्ठ सृजन हेतु हार्दिक शुभकामनाएं।

माधव( Madhav) said...

nice

वीनस केसरी said...

जातियां तो जिस्म की मज़बूरियाँ
रूह की ना पांत है न जात है

वाह हासिले गजल शेर है ये तो
--------------------------------
एक मिसरा उलझन पैदा कर रहा है

सफलताएं चरण उनके चूमती

गुनगुनाने में दिक्कत आ रही है

९४ :)

डॉ० डंडा लखनवी said...

बहुत सुन्दर, कबिले तारीफ !