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Thursday 6 May, 2010

रौशनी कर

रौशनी कर 
घर जला कर

बोल हंस कर 
ग़म भुला कर

जीतते ही 
मैं सिकंदर 

हार मेरी 
शहर के सर 

बूँद हूँ मैं 
तू समंदर 

छोड़ कल की
आज ही कर 

उम्र गुजरी 
राह चल कर

दोस्त सब खुश 
ज़ख्म दे कर 

शिव बने शिव 
ज़हर पी कर 

क्यों खडा है 
सर झुका कर 

मौत से मिल 
मुस्कुरा कर 

कौन रहज़न 
कौन रहबर 

चोंक मत तू 
हर खबर पर
 

6 comments:

Rajendra Swarnkar : राजेन्द्र स्वर्णकार said...

जोगेश्वरजी
बढ़िया लिखा । वाह-वाह !

रौशनी कर
घर जला कर

शिव बने शिव
ज़हर पी कर

मौत से मिल
मुस्कुरा कर

शानदार शे'र हैं ।

मक़्ता क़बूल फ़रमाएं…

"ख़ूब लिखते
तुम जोगेश्वर"


शस्वरं - राजेन्द्र स्वर्णकार

jogeshwar garg said...

धन्यवाद राजेन्द्रजी !
सामान्यतया मैं हर ग़ज़ल में मक्ते का शेर ज़रूर कहता हूँ. मक्ता एक चुनौती होता है शायर के लिए. यह चुनौती मुझे हर ग़ज़ल के साथ नया आनंद दे कर जाती है. पर कभी कभी बहर की बंदिशें इतना मज़बूर कर देती है कि हार माननी पड़ती है. इस ग़ज़ल में भी मुझे हारने की कसक झेलनी पडी है. आपने अच्छा मक्ता जोड़ा मगर वह भी बहर से बाहर है क्योंकि एक मात्रा बढ़ रही है. ऐसा समझौता ही करना होता तो मैं भी कर लेता. कुल सात मात्राओं की बहर ली है मैंने और छः मात्राएँ तो मेरे नाम में ही खप जाती हैं. इसलिए मैं अपनी हार कबूल करता हूँ.
एक बार फिर धन्यवाद !

Rajeev Bharol said...

बहुत सुंदर ग़ज़ल.

हरकीरत ' हीर' said...

हार मेरी
शहर के सर

बहुत खूब .....

बूँद हूँ मैं
तू समंदर

छोड़ कल की
आज ही कर

अति सुंदर ......!!

Anonymous said...

शानदार ग़ज़ल...कुछ द्रोणाचार्य मिल रहे है मुझे ...!!!

आशा है आपसे बहुत कुछ सीखूंगा ....

ओम पुरोहित'कागद' said...

आदरणीय जोगेश्वर जी,
वन्दे!
बहुत दिनोँ बाद सक्रिय हुए हैँ आप। आपकी यह पारी जोरदार है।बधाई! आपकी दोनोँ ग़ज़लेँ शानदार और जानदार हैँ।दूसरी यानी छोटी बहर वाली ग़ज़ल तो वाकई वज़नदार है। इतनी छोटी बहर में ग़ज़ल कहना बहुत कठिन काम है।इस छंद के दादा गुरू भी इतनी छोटी बहर मेँ ग़ज़ल कहने को तरसते थ।आपको नमन!