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Sunday, 15 March 2009

नौका टूटे नाविक रूठे

नौका टूटे नाविक रूठे छूटे साथ किनारों का
दीवाना हूँ दीवाने को डर कैसा मंझधारों का

सूरज रूठे चन्दा रूठे मुझको फर्क नहीं पड़ता
मेरी राहें रौशन हैं तो यह अहसान सितारों का

सुख क्या दुःख क्या धूप छाँव हैं आते जाते रहते हैं
गरमी बारिश सर्दी पतझड़ फिर कुछ साथ बहारों का

उनको देखूं तो आंखों को ठंडक सी मिल जाती है
कुछ तो रिश्ता होता होगा नज़रों और नज़ारों का

दुल्हा दुल्हन दोनों ही खुश खूब खूब खुश बाराती
दर्द कौन समझा है अब तक कन्धों और कहारों का

अपने पैरों पर "जोगेश्वर" खड़े रहो चलना सीखो
गैरों के कन्धों पर कब तक कब तक साथ सहारों का

1 comment:

Anonymous said...

जोगेश्वरजी,
आपको अभी तक गूगल रीडर के जरिये पढ़ रहा था (जिसमें अभी कमेन्ट देने की सीधी सुविधा नहीं है)...पर आपकी इस नज़्म ने तो तारीफ करने मजबूर कर दिया....
दुल्हा दुल्हन दोनों ही खुश खूब खूब खुश बाराती
दर्द कौन समझा है अब तक कन्धों और कहारों का...
बहुत ही खूबसूरत नज़्म और बहुत ही मर्मस्पर्शी अहसास हैं |

पर सच कहूँ तो जब आपकी प्रोफाइल देखी तो थोडा अचरज और फिर एक सुखद अनुभूति हुई कि आज भी राजनीति में कविहृदय और संवेदनशील लोग मौजूद हैं ||
आपकी अगली नज़्म का इंतजार रहेगा ||