Subscribe

RSS Feed (xml)

Powered By

Skin Design:
Free Blogger Skins

Powered by Blogger

Wednesday, 18 March 2009

चुटकी में

बदलता है भला ऐसे कभी व्यवहार चुटकी में
लड़ो भी एक पल में और कर लो प्यार चुटकी में

दिलों का मेल होना और वह भी जिंदगी भर का
नहीं होता कभी इतना बड़ा व्यापार चुटकी में

तुम्हारे शहर की ऐसी रवायत है सुना मैंने
कभी इकरार चुटकी में कभी इनकार चुटकी में

बदलने का अगर है शौक़ तो बदलो ज़रा मुझको
बदलते हो वतन में जिस तरह सरकार चुटकी में

कहो नाराज़ क्यों हो पूछता है आज "जोगेश्वर"
उसे भी तो किसी दिन तुम करो स्वीकार चुटकी में

4 comments:

शोभित जैन said...

दिल तक पहुँच गयी आपकी ये नज़्म चुटकी में ....

Dheeraj Bhatnagar said...

हम भी चाहते थे वो बेवफा निकलें,
उन्हें समझने का कोई तो सिलसिला निकले.

शिकवा-ए-ज़ुल्मत-ओ-शब् से तो कहीं बेहतर था,
अपने हिस्से की कोई शम्मा जलाते जाते....

अभी भी वक़्त है जनाब, तस्वीर बदलने का जज्बा होना चाहिए,
तो क्या हुआ जो अभी मैदान में नहीं है, वक़्त, किसी का भी गुलाम नहीं है.

Anonymous said...

एक चुटकी रेत
उस घर के कच्चे आंगन की याद दिलाती है
एक चुटकी रेत
जब लिफाफे वाले पत्र को खोलने से पहले
उसके मुहाने पर चिपके गोंद पर
हवा से उड़कर लगे चुटकीभर से कम मिट्टी के बारीक कणों में
मन खुशबू की टोह लेता है।
उस चुटकीभर खुशबू से पूरे मन को सुगन्धित
करने का भाव खोज लेता है।
या फिर चुटकीभर रेत का वह भाव
जो राजस्थान की किसी सुदूर ढाणी में
किसी रमणी के मन में होता है।
जिससे वे हाथ अंतिम बार
तब अनायास ही छुए थे
जब चुटकीभर सिंदूर से
जीवन में पहली बार
उसके बालों के बीच वाली किनारी
को सिंदूर से रंगा था।
चुटकीभर उस लाल रंग की अतुलनीय खुशी
भुला देती है
सीमा पर डटे पति का बिछोह।
वह वेदना तब चुटकीभर आंसू ढुळकाती है
जब वहां से आए किसी अन्तर्देशीय
खत के बीच वाले मोड़ में
चुटकीभर से भी कम रेत होती है
जो शायद पत्र को पूरा करते समय
उसमें अटक गई होगी।
दो देशों को बांटने वाली तारबंदी के पास वाली
उस चुटकीभर रेत में उसे अपने मिलन का
संसार नजर आता है।

आपने अपनी रचना में गागर में सागर भरा है
वक्त की नजाकत को भांपते हुए आपने अच्छा लिखा है
तुम्हारा क्या बिगाडा पूछता है आज "जोगेश्वर"
उडाते हो भला क्यों तुम उसे हर बार चुटकी में

जिसे कल बचाकर लाया था थड़ियों से
वह मुझे आज तौल रहा है कौड़ियों में

और ज्यादा क्या लिखुं

वैसे भी मुझे अच्छा लिखना नहीं आता पत्रकारिता के कठोर धरातल पर ग्रेजुएशन के दौरान सीखे गए छन्द अलंकार शायद घिस चुके हैं।
उत्कृष्ट आपको ब्लॉग पर देखकर खुशी हुई।
मार्गदर्शन की अपेक्षा के साथ
प्रदीप
जालोर
9983831415

Jagmohan Manchanda said...

pardney ka shok hai, masala mangta tha! aaj kaphi din ki talash ke bad sam vichar pardney ko mila. bahut dhanywad. phir bhi miltey raheingey.CHUTKI Mein.