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Monday, 23 March 2009

चन्द तिनकों के सहारे

चन्द तिनकों के सहारे मैं यहाँ तक आ गया
बरगदों की छाँव में जब भी गया घबरा गया

दौड़ कर आना तुम्हारा बांह भर मिलना गले
बेवज़ह इतनी तवज्जो मैं बहुत चकरा गया

हादसा ऐसा हुआ है इस शहर में दोस्तों
मर चुकी है आदमीयत आदमी गश खा गया

मांग जो भी चाहिए जब कह उठा मुझसे सनम
बदनसीबी देखिये मैं उस घड़ी हकला गया

ख्वाब देखे थे बुजुर्गों ने की ऐसा मुल्क हो
सोच "जोगेश्वर" ज़रा क्या वह ज़माना आ गया

2 comments:

डा ’मणि said...

सादर अभिवादन जोगेश्वर जी

भई वाह - वाह वाह
आनन्द आ गया
चन्द तिनकों के सहारे मैं यहाँ तक आ गया

बरगदों की छाँव में जब भी गया घबरा गया



दौड़ कर आना तुम्हारा बांह भर मिलना गले

बेवज़ह इतनी तवज्जो मैं बहुत चकरा गया



हादसा ऐसा हुआ है इस शहर में दोस्तों

मर चुकी है आदमीयत आदमी गश खा गया



मांग जो भी चाहिए जब कह उठा मुझसे सनम

बदनसीबी देखिये मैं उस घड़ी हकला गया

वाह जोगेश्वर जी वाह
दर असल मैं तारीफ़ करने के लिये कोई एक शेर नही छांट पाया , और आपकी पूरी गज़ल ही दुबारा कह गया , एक एक शेर लाजवाब

इस पर मुझे कल ही लिखा एक मुक्तक याद आ गया कि
ये दीपक जल नही पाता , अगर जो तुम नही होते
अंधेरा ढल नही पाता , अगर जो तुम नही होते
अगर जो तुम नही होते ,मैं इतना दौड पाता क्या
अरे मैं चल नही पाता , अगर जो तुम नही होते

पूरी गज़ल के लिये आपको पुनः ढेरो बधाई

सादर
डा उदय मणि कौशिक
सार्थक व समर्थ हिन्दी कविताओ , गज़लो के लिये देखे
http://mainsamayhun.blogspot.com

संगीता पुरी said...

वाह !! बहुत अच्‍छी रचना ।