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Sunday 26 July, 2009

इसलिए वह

इसलिए वह देवताओं की तरह इतरा गया
जो मिला उसके चरण तक झुक गया झुकता गया

सूर्य उसके अहम् का छूने लगा ऊंचाइयां
दीप मेरी आस्था का मंद हो बुझाता गया

कारवां तो चल रहा था ठीक थी उसकी दिशा
रहनुमा को क्या हुआ जो खुद उसे भटका गया

मैं निवेदन कर रहा था राह की मुश्किल उसे
वह मुझे नादान कह कर चल पडा फंसता गया

बाँध बनवा कर कहा पानी पिलाऊँगा तुझे
नहर तो आयी नहीं मेरी नदी भी खा गया

दिल खिलौना था मुहब्बत खेल थी उसके लिए
कुछ दिनों तक खेल खेला और फिर उकता गया

आज "जोगेश्वर" कहूं तो क्या कहूं किससे कहूं
मैं भरोसा कर रहा था और वह छलता गया

5 comments:

ओम आर्य said...

दिल खिलौना था मुहब्बत खेल थी उसके लिए कुछ दिनों तक खेल खेला और फिर उकता गया

YAH KIS TARAH KA PYAR HOTA HAI MUJHE SAMAJH ME NAHI AATI .......UKATANA HAI TO PYAAR KIDHER HAI .....PAR RACHANA ACHCHHI HAI ......YAH BHI EK SACH HAI SAMAAJIK PRANIYO KA

संगीता पुरी said...

बहुत सुंदर !!

गंगू तेली said...

बाँध बनवा कर कहा पानी पिलाऊँगा तुझे नहर तो आयी नहीं मेरी नदी भी खा गया

लगता है, जवाई का दर्द बोल उठा है.
आपको ऐसी रचनाओं के लिए जितनी तारीफ़ दूँ कम है.

दिल खिलौना था मुहब्बत खेल थी उसके लिए
कुछ दिनों तक खेल खेला और फिर उकता गया,

यह शेर भी कमाल का है.
हमारे तेल के लिए भी कुछ करिए....

वीनस केसरी said...

जोगेश्वर भाई
आज तो आपकी गजल के तेवर ही अलग से हैं
क्या गजल कही है आपने दिल बाग़ बाग़ हो गया, एक से बढ़ कर एह शेर कहे
पूरी गजल एकदम कमाल धमाल है

वीनस केसरी

Udan Tashtari said...

बाँध बनवा कर कहा पानी पिलाऊँगा तुझे
नहर तो आयी नहीं मेरी नदी भी खा गया

-बिल्कुल सटीक...यही हाल है. बेहतरीन रचना.