गए थे पास उनके पर उन्हें मिल कर नहीं आए
बहुत कुछ था जुबां पर पर उन्हें कह कर नहीं आए
कहे जो सच करे जो लीक से हट कर सदा बातें
कहो है कौन जिस पर सुलगते पत्थर नहीं आए
मुझे मालूम है इस कोठरी में खूब इतरा कर
गए थे सूरमा पर दाग़ से बच कर नहीं आए
गए हम घाट गंगा के मगर फिर भी रहे पापी
असर होता कहाँ से हम उसे छू कर नहीं आए
जनमते ही सभी प्राणी खुशी से झूम उठते हैं
फ़क़त इंसान ऐसे हैं कभी हंस कर नहीं आए
हमारी बहस मालिक से अगर होगी यही होगी
बुलाया आपने हमको की हम चल कर नहीं आए
सजी है खूब महफ़िल आपकी मौजूद हैं सारे
कमी है सिर्फ़ इतनी सी ki "जोगेश्वर" नहीं आए
3 comments:
गए हम घाट गंगा के मगर फिर भी रहे पापी........ये पंक्तियाँ दिल को छू गयी...!यही मानव मन है...सोचते कुछ है और होता कुछ और ही है....!प्रभावित...करती है आपकी रचना....
भाई जोगेश्वर जी,
आपको नेट पर पाकर बहुत खुशी हुई.
सक्रियता बनाये रखें.
गज़ल तो बेहतरीन है ही.
बहुत सुंदर ...
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