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Friday, 20 March 2009

गए थे पास उनके

गए थे पास उनके पर उन्हें मिल कर नहीं आए
बहुत कुछ था जुबां पर पर उन्हें कह कर नहीं आए
कहे जो सच करे जो लीक से हट कर सदा बातें
कहो है कौन जिस पर सुलगते पत्थर नहीं आए
मुझे मालूम है इस कोठरी में खूब इतरा कर
गए थे सूरमा पर दाग़ से बच कर नहीं आए
गए हम घाट गंगा के मगर फिर भी रहे पापी
असर होता कहाँ से हम उसे छू कर नहीं आए
जनमते ही सभी प्राणी खुशी से झूम उठते हैं
फ़क़त इंसान ऐसे हैं कभी हंस कर नहीं आए
हमारी बहस मालिक से अगर होगी यही होगी
बुलाया आपने हमको की हम चल कर नहीं आए
सजी है खूब महफ़िल आपकी मौजूद हैं सारे
कमी है सिर्फ़ इतनी सी ki "जोगेश्वर" नहीं आए

3 comments:

RAJNISH PARIHAR said...

गए हम घाट गंगा के मगर फिर भी रहे पापी........ये पंक्तियाँ दिल को छू गयी...!यही मानव मन है...सोचते कुछ है और होता कुछ और ही है....!प्रभावित...करती है आपकी रचना....

डॉ दुर्गाप्रसाद अग्रवाल said...

भाई जोगेश्वर जी,
आपको नेट पर पाकर बहुत खुशी हुई.
सक्रियता बनाये रखें.
गज़ल तो बेहतरीन है ही.

संगीता पुरी said...

बहुत सुंदर ...