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Saturday 20 June, 2009

कभी फूल को चाँद कह कर पुकारा

कभी फूल को चाँद कह कर पुकारा
कभी नाम खुशबू दिया चांदनी को
चकित हैं सितारे नजारे अचंभित
हुआ क्या अरे क्या हुआ आदमी को

कभी जिंदगी को खुशी को कभी हम
रहे ढूंढते पर नहीं ढूंढ पाए
मिला तू अचानक लगा यूं हमें तब
मिली हर खुशी पा लिया जिंदगी को

बनूँ डाल मैं तू खिले फूल बन कर
करें तर हवा को नयी खुशबुओं से
बनूँ मैं दिया तू बने लौ दिए की
भरें इस जहां में नयी रौशनी को

जिन्हें तैरने में महारत मिली थी
सयाने बने वो नहीं पार उतरे
यहाँ डूब जाए वही पार निकले
मुहब्बत अगर नाम दें इस नदी को

अनोखा गणित है अज़ब दास्ताँ है
समझ लो अगर तो बहुत ही सरल है
घटेगा अगर दर्द साझा करो तो
बढेगी अगर बाँट दोगे खुशी को

नहीं कोई जादूगरी ये किसी की
न ही "जोगेश्वर" ये चमत्कार कोई
उडाने चले थे हंसी जो तुम्हारी
तरसते नज़र आ रहे वो हंसी को

5 comments:

समयचक्र said...

बहुत सुन्दर रचना बधाई .

ओम आर्य said...

बढिया भाव पुर्ण .........बधाई

Udan Tashtari said...

बहुत बेहतरीन, प्रवाहमय!!

Randhir Singh Suman said...

good

नीरज गोस्वामी said...

जिन्हें तैरने में महारत मिली थी
सयाने बने वो नहीं पार उतरे
यहाँ डूब जाए वही पार निकले
मुहब्बत अगर नाम दें इस नदी को

वाह जोगेश्वर जी वाह...सारी ही रचनाएँ अपने आप में विलक्षण हैं...आप की लेखन क्षमता प्रशंशनीय है...लिखते रहें.
नीरज